मैं उन लोगों का प्रशंसक हूँ, जो खेल में अच्छे हैं । मैं बहुत अच्छा नहीं रहा इसमें । गाँव में थोड़ा वॉलीबॉल एवं विश्वविद्यालय में थोड़ा क्रिकेट के अलावा बहुत कर नहीं पाया । मेरी शारीरिक क्रियाएं चलने और योग तथा कुछ मूल क्रियाओं तक ही सीमित हैं ।संयोग से मुझे योग के एक अच्छे ट्रेनर मिल गए थे । वैसे जीवन में खेलदिली सीखने के कई अन्य अवसर मिले ।
मुझे कविता और ग़ज़ल लिखने का शौक था तथा नाट्य मंचन भी किया लेकिन आईएएस में आने के बाद चालू नहीं रख पाया । वैसे जीवन में कई अनुभव ऐसे हैं जो प्रासंगिक हैं ।
वो अधिकारी जो अपने नाम के आगे ‘डॉ’ लगाते हैं, उनसे मुझे थोड़ी जलन होती है । मैंने स्वयं भी डी. फिल में प्रवेश लिया, UGC फेलोशिप का पैसा पाया, रिसर्च का कुछ काम भी किया किन्तु आईएएस में आकर समय के अभाव में रिसर्च का कार्य पूरा नहीं कर पाया । शायद यह एक गलती हुई ।
सरकारी नौकरी में एलटीसी की व्यवस्था है, जिसके तहत देश में परिवार के साथ घूमने जाया जा सकता है । लेकिन ३२ साल में इसका उपयोग मैं थोड़ा भी नहीं कर पाया । ईश्वर कृपा से मुझे स्वयं देश-दुनिया देखने का अवसर तो मिला, लेकिन परिवार के लिए यह कमी पूरी नहीं हो पा रही ।
देर तक काम करना एवं साप्ताहिक छुट्टियों में काम करना एक सामान्य सी बात है । लेकिन कभी-कभार मेरी बेटी जो वकील है, वो कहती थी कि मैं सरकार के सामने मानवाधिकार का केस कर दूंगी..होली, दशहरा, दिवाली जैसे त्योहारों पर कैसे काम करा सकते हैं लोग ।
लोक कर्त्तव्य एवं पारिवारिक जीवन में संतुलन का अभाव एक सर्वव्यापी समस्या है । मेरे जीवन में यह थोड़ा ज्यादा ही रहा है । मेरी पत्नी इसकी शिकायत करती रहती हैं; लेकिन मैं इसे शिकायत नहीं शाबाशी मानता हूं । मैं लोकसेवा के काम के लिए समय देने में ना नहीं बोल पाता; हाँ उसके चलते परिवार ने जो गंवाया उसकी क्षतिपूर्ति भी संभव नहीं है ।
लेकिन मेरे पास इस परिस्थिति के लिए तर्क है । सत्य यह है कि मुझे काम में ही आनंद आता है और लोगों के लिए काम करने में संतोष मिलता है । लोकसेवा करते हुए ऐसा लगता है मैं अपने ही लोगों की सेवा कर रहा हूँ । आईएएस की नौकरी में मैंने सभी भूमिकाएं इसी भावना के साथ निभाईं हैं ।
जिगर मुरादाबादी ने बखूबी कहा है:
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है,
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है II